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गृहणी न. ६११
लेखिका अनुपमा अग्रवाल चंद्रा
दिया अकेली बैठी चाय पी रही थी. अभी अभी मोहित को स्कूल बस में बैठा कर आई थी. उसके पति समीर ऑफिस के काम से बाहर गए हुए थे आजकल वो अक्सर टूर पर रहते थे .
दिया को बस यही एक टाइम मिलता था की वो मज़े से चाय की चुसकियाँ ले सके और फुर्सत से कुछ सोच पाये. ज़िन्दगी भी कितनी अजीब होती है , हर रोज़ दिया को लगता जैसे समय भागता जा रहा है और वो बस किसी तरह एक दिन में हज़ार चीज़ें करने की कोशिश कर रही है.रेत की तरह वक़्त हाथ से फिसला जा रहा था और उसी के साथ ज़िन्दगी भी.
वो बहुत कुछ करना चाहती थी पर उसकी शादी जल्दी हो गयी थी . उसके माँ बाबा हाथ से भी वक़्त फिसला जा रहा था. रिटायर होने से पहले वो वो उसकी शादी कर देना चाहते थे .लेकिन आज भी जब वो कामकाजी महिलाओं को बनठन कर सुबह काम पर जाते देखती तो दिल में एक कसक सी होती थी . काश …
पर क्या करती ससुराल में महिलायों का घर से बाहर काम करना बुरा समझा जाता था. आते ही सास ने कह दिया था पढ़ी लिखी हो तो क्या हुआ अब तो बस घर संभालो.
बस वही किया और अब खाना बनाना , घर देखना , मोहित का होमवर्क और सब की फरमाइशें पूरा दिन यही और फिर अगला दिन और वो भी वैसा ही. आज और कल में कोई फर्क ही नहीं.
शादी के समय उसकी पढाई लिखाई , होशियारी,रूप . गुण, देख कर ही शादी की गयी थी पर आज उससे उम्मीद थी की न तो उसके कोई अपने विचार हों, न मर्ज़ी, न दिमाग और न अस्तित्व . कभी कभी दिया को लगता की बहु का कोई नाम ही नहीं होना चाहिए सिर्फ नंबर होना चाहिए गृहणी न. ६११ उसकी जन्मतिथि . अपनी बात पर खुद ही हंस पड़ी थी दिया. अब एक ऐसी टी शर्ट बनवा ही लेनी चाहिए मुझे.
मोहित सात साल का हो गया था अब उसे एक भाई या बहन की जरूरत थी. दिया के मन में भी एक और बच्चे की हुक सी उठती थी . अबकी बार जब समीर टूर से लौटेगा तो इस बारे में बात करेगी.अब नहीं तो कब? दिया ने घडी की तरफ देखा , उठाना चाहिए सबको नाश्ता करवा के उसे बैंक जाना था बाबूजी की पासबुक अपडेट कराने.
ठीक ११ बजे दिया तैयार होकर निकल गयी . जल्दी जल्दी पासबुक अपडेट करवा कर सब्जी मार्किट की तरफ चल पड़ी. सड़क पर ऑटो का इंतज़ार कर रही थी की उसकी नज़र सड़क के उस पार खड़े एक आदमी पर पड़ी.अरे ये तो समीर है .पर समीर तो टूर पर गया हुआ है .कहीं उसे धोखा तो नहीं हो रहा ? पर समीर के कंधे पर वो हरा वाला लैपटॉप बैग भी था. समीर समीर उसने आवाज़ दी पर तब तक वो एक कार में बैठ कर जा चूका था.
कल रात ही तो उसकी समीर से फ़ोन पर बात हुई थी. समीर ने कहा था अभी कुछ दिन और लगेंगे काम ज्यादा है. शायद किसी वजह से आना पड़ा होगा .शाम को दफ्तर के बाद आयेंगे तो पूछू लूंगी . सोच कर दिया ने सब्जी खरीदी और मोहित को बस स्टॉप से लेकर घर पहुँच गयी. दिल में हजारों सवाल थे .
शाम होते ही उसकी नज़रें गेट की तरफ लगी रहीं कब समीर आये और कब वो उससे पूछे . समीर का ये व्यवहार उसकी समझ में नहीं आ रहा था. `शाम से रात हो गयी पर समीर नहीं आया .
दिया का दिल धुक्कड़ धुक्कड़ कर रहा था . ये दिल भी अजीब होता है बुरी से बुरी बात सोच लेता है और होनी से ज्यादा होनी की आशंका से डरता है. कहीं समीर किसी मुसीबत में तो नहीं था?.रात को उसने समीर को फ़ोन किया , समीर कहाँ हो तुम?
मैं तो दिल्ली में ही हूँ , बताया था तुम्हे की कुछ दिन और लगेंगे .
पर समीर….
(This content is original and copyright of Anupma Agarwal Chandra. You may quote with due credit)
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